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कानूनों में बदलाव की आवश्यकता

सिर्फ हंगामे खड़े करना मेरा मकशद नहीं, मेरी कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिए।।।।।।।।
सिर्फ हंगामे खड़े करना मेरा मकशद नहीं, मेरी कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिए।।।।।।।।
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जीव विज्ञानं के एक महान वैज्ञानिक “ह्यूगो दी ब्रीज” ने कहा था कि विकास एक धीमे गति से होने वाली सतत प्रक्रिया हैं जिसके फल स्वरुप होने वाले परिवर्तन हमें बहुत देर से पता लगते हैं. ये प्रक्रिया इतनी धीमी होती हैं कि कभी कभी इससे होने वाले परिवर्तन हमें कई पीढ़ियों बाद नजर आते हैं.
इसी भांति आज पैदा हुई विभिन्न समस्याएं अचानक से नहीं आई हैं ये उस धीमी गति लेकिन सतत होने वाली प्रक्रिया के फलस्वरूप विकसित हुई हैं. भ्रूण हत्या, दहेज़ प्रथा, नारी शोषण, बेरोजगारी, भ्रटाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद समेत अनेक सामाजिक बुराइयो के पीछे छुपी जड़ों को समाप्त करने का एक सच्चा प्रयास हमें कभी देखने को नहीं मिला. विभिन्न नारी संगठनो ने आज जो स्त्री एवं पुरुष एक दूसरे के पूरक हुआ करते थे उन्हें ही एक दूसरे का प्रतिद्वंदी बना दिया हैं. नारी पर होने वाले अत्याचारों की तरफदारी कोई नहीं कर सकता क्योंकि वह एक जघन्य अपराध ही हैं. परन्तु क्या हमने कभी भी इस समस्या की जड़ मैं जाने की कोशिश की हैं क्या?? गलत नीतियों का बनना, या उन का सही क्रियान्वयन न होना, या फिर देश की आजादी या फिर उससे भी पहले बने कानूनो से देश चलना ये सब उन सारी समस्याओं की जड़ हैं??
हमारे बहुत सारे कानून अठारहवीं या उन्नीसवी सदी के बने हैं और उन से हम इक्कीसवी सदी का देश एवं उसमे रहने वाले लोगो को चलाने का प्रयास कर रहे हैं. यदि इन पुराने कानूनों जिनमे सेंसर बोर्ड, जुबिलिन बोर्ड से जुड़े कानून आते है, में बड़े बदलाव करेंगे तो हमारी कई समस्याएं हल हों जायेगीं. सच कहे तो निर्भया केस के बाद हमें पता लगा की बलात्कार, हत्या जैसे जघन्य अपराधी भी यदि अठारह साल से कम हों तो उन्हें किशोर मान कर उनका केस अलग से चलता हैं एवं उन्हें अधिकतम तीन साल तक बाल शुधार गृह में भेजा जा सकता हैं. जब कानून बना था तब अठारह साल से कम के युवा सच में किशोर होते थे और वह ज्यादा से ज्यादा रोटी चुराने, साइकिल चुराने, कुछ काम की चीजे आदि चुराने जैसे ही अपराध करते थे. जिसके लिए उन्हें सलाखों के पीछे भेजना गलत था. आज वही किशोर हत्या एवं बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में शामिल हैं और कानून पुराना होने की बजह से गुनहगार बच रहे हैं. क्या इतने जघन्य अपराध करने वाले की उम्र, जाती, धर्म पूछना भी आवश्यक होना चाहिए? आज सेंसर बोर्ड मूक दर्शक बनकर धड़ल्ले से टीवी एवं फिल्म जगत की तोड़ती हुई मर्यादयों को देख रहा हैं. यहाँ तक की विभिन्न उत्पादों के विज्ञापन भी सभ्य समाज के लोग अपने बच्चों के साथ नहीं देख सकते. एक मशहूर टीवी चैनल पर आने वाले एक धारावाहिक मैं समाज मैं हुए कुछ हादसों का नाट्य रूपांतरण दिखाया जाता हैं एवं खत्म होने के बाद उसके एंकर बोलते हैं की कोई भी क्राइम अनायास नहीं होता उसकी आहट बहुत पहले से सुनाई देती हैं लेकिन हम उसे नजरअंदाज कर देते हैं.
अनुज कुमार करोसिया

जीव विज्ञानं के एक महान वैज्ञानिक “ह्यूगो दी ब्रीज” ने कहा था कि विकास एक धीमे गति से होने वाली सतत प्रक्रिया हैं जिसके फल स्वरुप होने वाले परिवर्तन हमें बहुत देर से पता लगते हैं. ये प्रक्रिया इतनी धीमी होती हैं कि कभी कभी इससे होने वाले परिवर्तन हमें कई पीढ़ियों बाद नजर आते हैं.

इसी भांति आज पैदा हुई विभिन्न समस्याएं अचानक से नहीं आई हैं ये उस धीमी गति लेकिन सतत होने वाली प्रक्रिया के फलस्वरूप विकसित हुई हैं. भ्रूण हत्या, दहेज़ प्रथा, नारी शोषण, बेरोजगारी, भ्रटाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद समेत अनेक सामाजिक बुराइयो के पीछे छुपी जड़ों को समाप्त करने का एक सच्चा प्रयास हमें कभी देखने को नहीं मिला. विभिन्न नारी संगठनो ने आज जो स्त्री एवं पुरुष एक दूसरे के पूरक हुआ करते थे उन्हें ही एक दूसरे का प्रतिद्वंदी बना दिया हैं. नारी पर होने वाले अत्याचारों की तरफदारी कोई नहीं कर सकता क्योंकि वह एक जघन्य अपराध ही हैं. परन्तु क्या हमने कभी भी इस समस्या की जड़ मैं जाने की कोशिश की हैं क्या?? गलत नीतियों का बनना, या उन का सही क्रियान्वयन न होना, या फिर देश की आजादी या फिर उससे भी पहले बने कानूनो से देश चलना ये सब उन सारी समस्याओं की जड़ हैं??

हमारे बहुत सारे कानून अठारहवीं या उन्नीसवी सदी के बने हैं और उन से हम इक्कीसवी सदी का देश एवं उसमे रहने वाले लोगो को चलाने का प्रयास कर रहे हैं. यदि इन पुराने कानूनों जिनमे सेंसर बोर्ड, जुबिलिन बोर्ड से जुड़े कानून आते है, में बड़े बदलाव करेंगे तो हमारी कई समस्याएं हल हों जायेगीं. सच कहे तो निर्भया केस के बाद हमें पता लगा की बलात्कार, हत्या जैसे जघन्य अपराधी भी यदि अठारह साल से कम हों तो उन्हें किशोर मान कर उनका केस अलग से चलता हैं एवं उन्हें अधिकतम तीन साल तक बाल शुधार गृह में भेजा जा सकता हैं. जब कानून बना था तब अठारह साल से कम के युवा सच में किशोर होते थे और वह ज्यादा से ज्यादा रोटी चुराने, साइकिल चुराने, कुछ काम की चीजे आदि चुराने जैसे ही अपराध करते थे. जिसके लिए उन्हें सलाखों के पीछे भेजना गलत था. आज वही किशोर हत्या एवं बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में शामिल हैं और कानून पुराना होने की बजह से गुनहगार बच रहे हैं. क्या इतने जघन्य अपराध करने वाले की उम्र, जाती, धर्म पूछना भी आवश्यक होना चाहिए? आज सेंसर बोर्ड मूक दर्शक बनकर धड़ल्ले से टीवी एवं फिल्म जगत की तोड़ती हुई मर्यादयों को देख रहा हैं. यहाँ तक की विभिन्न उत्पादों के विज्ञापन भी सभ्य समाज के लोग अपने बच्चों के साथ नहीं देख सकते. एक मशहूर टीवी चैनल पर आने वाले एक धारावाहिक मैं समाज मैं हुए कुछ हादसों का नाट्य रूपांतरण दिखाया जाता हैं एवं खत्म होने के बाद उसके एंकर बोलते हैं की कोई भी क्राइम अनायास नहीं होता उसकी आहट बहुत पहले से सुनाई देती हैं लेकिन हम उसे नजरअंदाज कर देते हैं.

अनुज कुमार करोसिया

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